Ganesh Chaturthi, हिन्दुओं का एक महत्वपूर्ण और धार्मिक पर्व है, जो हमारे देश में बड़े ही उत्साह और धूमधाम के साथ मनाया जाता है, लेकिन महाराष्ट्र और कर्नाटक में इसे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार, इसी दिन भगवान गणेश का जन्म हुआ था। गणेश चतुर्थी पर हिन्दू भक्त भगवान गणेशजी की पूजा करते हैं। कई प्रमुख स्थानों पर भगवान गणेश की विशाल मूर्ति बनाई जाती है, और इस मूर्ति का नौ दिनों तक पूजन किया जाता है। बड़ी संख्या में लोग आसपास के इलाकों से दर्शन करने आते हैं। नौ दिनों के उपासना के बाद, गणेशजी की मूर्ति को गीतों और संगीत के साथ किसी तालाब, समुंदर, या अन्य जल स्रोत में विसर्जित किया जाता है। गणेशजी को ‘लंबोदर’ भी कहा जाता है।”
Ganesh Chaturthi पुराणानुसार :
शिवपुराण में भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति गणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है जबकि गणेशपुराण के मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था।[1] गण + पति = गणपति। संस्कृतकोशानुसार ‘गण’ अर्थात पवित्रक। ‘पति’ अर्थात स्वामी, ‘गणपति’ अर्थात पवित्रकों के स्वामी।[2]
आदि गणेश :
गणेश का अर्थ होता है गणों का ईश और आदि का अर्थ होता है सबसे पुराना यानी सनातनी।[3]
हिन्दू पंथ में गणेश का अद्वितीय महत्व है। वे भगवान शिव और माँ पार्वती के पुत्र हैं और भगवान विष्णु और माँ लक्ष्मी के भी भ्राता हैं। गणेश को ‘आदि गणेश’ भी कहा जाता है, क्योंकि वे देवों के सबसे पहले गणपति हैं और समस्त देवताओं के मुख्य पुरोहित भी हैं।
आदि गणेश के विशेष रूप में कई महत्वपूर्ण गुण होते हैं। पहले, उन्हें गणों के भगवान के रूप में पूजा जाता है। वे समस्त गणों के प्रमुख गणपति होते हैं और दिव्य आयोजनों और धार्मिक कार्यों के आयोजन में उनकी पूजा सबसे पहले की जाती है।
आदि गणेश का चिन्हण व्यापक रूप से बड़ा और सुंदर होता है, जिसमें चार हाथ, मुषक (रॉडेंट) को सवार वाहन, वक्रतुंड शंख, चक्र और पद्म होते हैं। उनका वक्रतुंड एक महत्वपूर्ण सिंबोल होता है, जो बुद्धि और विवेक की प्रतीक होता है और समस्त कठिनाइयों को हल करने में मदद करता है।
आदि गणेश का पूजन विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और वे शुभ आरम्भ के द्वारदर्शी के रूप में माने जाते हैं। उन्हें गणपति, विघ्नेश्वर, विनायक आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
आदि गणेश की पूजा और भक्ति की मान्यता है कि वे सभी समस्याओं और बाधाओं को दूर करते हैं और जीवन में सुख-शांति लाते हैं। उन्हें सभी शुभ कार्यों के प्रारंभ में पुकारा जाता है, ताकि वे समस्त अवसरों में हमारी रक्षा करें और हमारे मार्ग में आगे बढ़ने की सहायता करें।
आदि गणेश की अनुग्रह को पाने के लिए भक्त उनकी पूजा, आराधना, और मनन करते हैं और उनसे गुज़री हुई समस्याओं के समाधान की मदद मांगते हैं। वे बुद्धि, विवेक, और विज्ञान के प्रतीक के रूप में भी माने जाते हैं, और उनकी पूजा और आराधना का महत्वपूर्ण स्थान हिन्दू धर्म में होता है। इसके साथ ही, वे शुभ शुरुआत के प्रतीक के रूप में भी माने जाते हैं और समस्त कार्यों को सुखमय और समृद्धिपूर्ण बनाने के लिए पुकारे जाते हैं।
Ganesh Chaturthi कथाएं :
प्रथम कथा :
शिवपुराण के अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वार पाल बना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया।[4]
शिवजी के निर्देश पर विष्णुजीउत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गज मुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्यहोने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अर्घ्य देकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे। वर्ष पर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।[5]
दूसरी कथा :
एक बार, महादेवजी, पार्वती सहित, नर्मदा के तट पर गए। वहां, एक सुंदर स्थान पर, पार्वती जी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने पूछा – ‘हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा?’ पार्वती ने तत्काल वहां की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा – ‘बेटा! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। इसलिए खेल के अंत में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा?’
खेल आरंभ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वती जी ही जीतीं। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया, तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहने का श्राप दिया। बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा – ‘माँ! मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें और शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ।’ तब ममतारूपी माँ ने उस पर दया आ गई और उन्होंने कहा – ‘यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे।’ इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।
एक वर्ष बाद, वहाँ श्रावण मास में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा – ‘मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो।’ बालक बोला – ‘भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।’ गणेशजी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा। तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थी। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह २१ दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।
वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँचीं। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा – ‘भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ।’ शिवजी ने ‘गणेश व्रत’ का इतिहास उनसे कह दिया। तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया। कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया। विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म से मुक्त होकर ‘ब्रह्म-ऋषि’ होने का वर माँगा। गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की। ऐसे हैं श्री गणेशजी, जो सभी की कामनाएँ पूर्ण करते हैं
तीसरी कथा :
एक समय की बात है, महादेवजी ने अपने निवास से स्नान करने के लिए निकले। उनके जाने के बाद, पार्वती माँ ने अपने शरीर के मैल से एक पुतला बनाया और उसका नाम ‘गणेश’ रखा। पार्वती माँ ने उस पुतले से कहा, “हे पुत्र! तुम एक मूषक (मूषक वाहन वाले भगवान गणेश का रूप) की आकृति में हो, तुम्हें एक मुगदल लेकर द्वार पर बैठ जाना है। मैं भीतर स्नान करने जा रही हूँ। जब तक मैं स्नान नहीं कर लेती, तब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर आने नहीं देना।[6]
भोगावती में स्नान करने के बाद जब भगवान शिवजी आए तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर रोक लिया। इसे शिवजी ने अपना अपमान समझा और क्रोधित होकर उनका सिर धड़ से अलग करके भीतर चले गए। पार्वती ने उन्हें नाराज देखकर समझा कि भोजन में विलंब होने के कारण महादेवजी नाराज हैं। इसलिए उन्होंने तत्काल दो थालियों में भोजन परोसकर शिवजी को बुलाया। तब दूसरा थाल देखकर तनिक आश्चर्यचकित होकर शिवजी ने पूछा- यह दूसरा थाल किसके लिए हैं? पार्वती जी बोलीं- पुत्र गणेश के लिए हैं, जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है।
यह सुनकर शिवजी और अधिक आश्चर्यचकित हुए। तुम्हारा पुत्र पहरा दे रहा है? हाँ नाथ! क्या आपने उसे देखा नहीं? देखा तो था, किन्तु मैंने तो अपने रोके जाने पर उसे कोई उद्दण्ड बालक समझकर उसका सिर काट दिया। यह सुनकर पार्वती जी बहुत दुःखी हुईं। वे विलाप करने लगीं। तब पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए भगवान शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। पार्वती जी इस प्रकार पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने पति तथा पुत्र को प्रीतिपूर्वक भोजन कराकर बाद में स्वयं भोजन किया।[7] यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी। इसीलिए यह तिथि पुण्य पर्व के रूप में मनाई जाती है।
Ganesh Chaturthi 2023: कब है गणेश चतुर्थी व्रत? जानिए पूजा मुहूर्त और महत्व… |
व्रत :
आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को आषाढ़ गणेश चतुर्थी का व्रत किया जाता है। इस तिथि को कृष्णपिङ्गल संकष्टी के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस दिन कृष्णपिंगाक्ष स्वरूप में गणेशजी की पूजा की जाती है। हर माह दो चतुर्थी होती हैं, लेकिन पूर्णिमा के बाद आने वाली चतुर्थी तिथि को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है।
भाद्रपद-कृष्ण-चतुर्थी से प्रारंभ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चंद्रोदयव्यापिनीचतुर्थी के दिन व्रत करने पर विघ्नेश्वरगणेश प्रसन्न होकर समस्त विघ्न और संकट दूर कर देते हैं |
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